ईश्वर ने दुनिया को अनेक रंगों से मिलकर बनाया है, चाहे सूर्य क़ी सतरंगी किरणें हों या समुद्र क़ी गहराइयों के नज़ारे। हर रंग में कुछ न कुछ नयापन है, जो ब्रह्माण्ड के हर कोने में मिलता है। इन सबको देखने के लिए जो अद्भुत इन्द्रिय है, उसका नाम है 'नेत्र'। ज्ञानेन्द्रिय के रूप में यह हमें तात्कालिक रूप से दुनिया के हर रंग से रु-ब-रु क़राती है।
जाहिर है, इसका अपना महत्व है, तभी तो नयनों की गहराइयों को कवियों और शायरों ने अपनी रचनाओं में कई बार दुहराया है। इसकी देखभाल करने क़ी भी सदियों से परम्परा रही है, जो कभी सूरमा के नाम से तो कभी काजल के नाम से प्रचलित रही है। भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद भी इस मामले में पीछे नहीं रही है।
1798 में डाक्टर ग्लीन डेविसन अमेरिका क़ी ईलेनीयास विश्वविद्यालय से भारत आये थे, उन्होंने भारतीय जडी - बूटियों से विश्व को परिचित कराया था, ग्यारहवीं शताब्दी में कानानेली द्वारा लिखी गई रसायन विज्ञान क़ी पान्डुलिपियों में कई बार "औषधिशाला" शब्द का प्रयोग हुआ है, जो स्वयं औषधियों के प्रयोग का प्रमाण है। आइए, आज हम ऐसी ही कुछ जड़ी-बूटियों का प्रयोग आपको नेत्र रोगों के सम्बन्ध में बताते हैं :-
- सडकों एवं खेतों के किनारे मिलने वाला पीलाधतूरा, जिसका तेल खाने में जहरीला होता है एवं इसी से मिलता हुआ पौधा रसोंत इनकी जड़ को छान कर उबालकर एक द्रव्य बनाते हैं, इसे साफ़ पानी में मिलाकर,आँखों में टपकाने से संक्रमण कम करने में मदद मिलती है।
-नीलगिरी, हिमालय, भूटान आदि में मिलने वाला 'ममीरा' जिसकी पत्तियाँ चवन्नी के समान होने के कारण इसे 'चवन्नी गच्छ' भी कहते हैं, इसकी जड़ को 'रसवंती' नाम से जाना जाता है, इसके सूरमे या काजल का प्रयोग आँखों क़ी ज्योति को बढाने में वर्षों से होता आ रहा है।
- नीलगिरी क़ी पहाड़ियों में मिलनेवाली झाड़ीनुमा वनस्पति जिसे 'पिंजारी' नाम से जाना जाता है, इसके पंचांग का प्रयोग द्रव्य रूप में नेत्रशूल में किया जाता रहा है।
- मालाबार एवं उत्तरी ट्रावन्कोर के इलाकों में मिलनेवाली जंगली कालीमिर्च क़ी लकड़ी को तेल में उबालकर आखों एवं कान क़ी बीमारियोँ में वर्षों से प्रयोग कराया जाता रहा है।
- लघुपाठा नामक लता के पत्तियों के रस को भी नेत्र रोगों में प्रयोग कराने का विधान है।
इन सभी वनस्पतियों का प्रयोग देशी दवाओं के जानकार, वैद्य सदियों से नेत्र रोगों में करते आ रहे हैं, इन वनस्पतियों पर नेत्र विशेषज्ञ वैज्ञानिकों के अध्ययन से यह बात सामने आयी है क़ि इनमें बार्बेरीन नामक रसायन विद्यमान है, जिसका प्रयोग प्राचीन काल से ही लोग सूरमें या काजल के रूप में करते आ रहे हैं। इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
http://religion.bhaskar.com/article/yoga-the-specific-drugs-for-the-eyes-2482813.html1798 में डाक्टर ग्लीन डेविसन अमेरिका क़ी ईलेनीयास विश्वविद्यालय से भारत आये थे, उन्होंने भारतीय जडी - बूटियों से विश्व को परिचित कराया था, ग्यारहवीं शताब्दी में कानानेली द्वारा लिखी गई रसायन विज्ञान क़ी पान्डुलिपियों में कई बार "औषधिशाला" शब्द का प्रयोग हुआ है, जो स्वयं औषधियों के प्रयोग का प्रमाण है। आइए, आज हम ऐसी ही कुछ जड़ी-बूटियों का प्रयोग आपको नेत्र रोगों के सम्बन्ध में बताते हैं :-
- सडकों एवं खेतों के किनारे मिलने वाला पीलाधतूरा, जिसका तेल खाने में जहरीला होता है एवं इसी से मिलता हुआ पौधा रसोंत इनकी जड़ को छान कर उबालकर एक द्रव्य बनाते हैं, इसे साफ़ पानी में मिलाकर,आँखों में टपकाने से संक्रमण कम करने में मदद मिलती है।
-नीलगिरी, हिमालय, भूटान आदि में मिलने वाला 'ममीरा' जिसकी पत्तियाँ चवन्नी के समान होने के कारण इसे 'चवन्नी गच्छ' भी कहते हैं, इसकी जड़ को 'रसवंती' नाम से जाना जाता है, इसके सूरमे या काजल का प्रयोग आँखों क़ी ज्योति को बढाने में वर्षों से होता आ रहा है।
- नीलगिरी क़ी पहाड़ियों में मिलनेवाली झाड़ीनुमा वनस्पति जिसे 'पिंजारी' नाम से जाना जाता है, इसके पंचांग का प्रयोग द्रव्य रूप में नेत्रशूल में किया जाता रहा है।
- मालाबार एवं उत्तरी ट्रावन्कोर के इलाकों में मिलनेवाली जंगली कालीमिर्च क़ी लकड़ी को तेल में उबालकर आखों एवं कान क़ी बीमारियोँ में वर्षों से प्रयोग कराया जाता रहा है।
- लघुपाठा नामक लता के पत्तियों के रस को भी नेत्र रोगों में प्रयोग कराने का विधान है।
इन सभी वनस्पतियों का प्रयोग देशी दवाओं के जानकार, वैद्य सदियों से नेत्र रोगों में करते आ रहे हैं, इन वनस्पतियों पर नेत्र विशेषज्ञ वैज्ञानिकों के अध्ययन से यह बात सामने आयी है क़ि इनमें बार्बेरीन नामक रसायन विद्यमान है, जिसका प्रयोग प्राचीन काल से ही लोग सूरमें या काजल के रूप में करते आ रहे हैं। इसी आर्टिकल को पढ़ने के लिए दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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