अक्सर हम किसी भी असाध्य बीमारी या लगातार अनावश्यक कष्ट एवं परेशानी उत्पन्न होने पर अपने पितरों या देवताओं के नाराज होने क़ी बात कह पूजा- पाठ में लग जाते हैं तथा देवताओं या ग्रहों द्वारा अनिष्ट होने के भय से ओझा एवं तांत्रिकों के चंगुल में फंस जाते हैं। यह परम्परा लगभग हर वर्ग में देखी जाती है, क्योंकि कई बार समुचित इलाज होने पर भी रोग रूपी दु:ख व्यक्ति को परेशान करता रहता है तथा किसी भी काम में अकारण विघ्न या बाधाएं आती रहती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति यह सोचने लगता है,कि शायद मुझसे कोई भूल हुई होगी।
जिस कारण मेरे पूर्वज ,देवता ,गुरु ,ग्रह आदि क़ी दृष्टी विपरीत हो गयी होगी। हालाँकि आयुर्वेद इनके प्रभाव से इनकार नहीं करता, लेकिन आयुर्वेद में इस बात का उल्लेख है ,कि व्यक्ति स्वयं के अच्छे एवं बुरे कर्मों को भोगता है, न क़ी उसे उसके पूर्वज या देवता नाराज होकर परेशान करते हैं। आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक संहिता के निदान स्थान में इस बात का उल्लेख है, कि व्यक्ति अपनी प्रज्ञा ( बुद्धि) से विभ्रम होकर यदि गलतियां करता है ,तो उसकी इन गलतियों से ही रोग उत्पन्न होते हैं।अत: विद्वान् व्यक्ति से यह अपेक्षा क़ी जाती है ,कि वे देवताओं ,पितरों एवं ग्रहों को इसका दोषी न बनाएं। सुख एवं दु:ख का करता व्यक्ति स्वयं है,अत: व्यक्ति को हमेशा जनकल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। वत्र्तमान में उत्पन्न हो रहे असाध्य रोगों के पीछे भी व्यक्ति के पूर्व में जाने -अनजाने में किये गए कर्म हैं , न कि पूर्वजों क़ी कुदृष्टि। अत: हमें स्वयं के विवेक से निर्णय लेकर सत्कर्म करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक लगातार शराब का सेवन करने वाला शराबी, अगर कुछ समय बाद लीवर के निस्कार्य होने से मरणासन्न हो जाता है, तो इसके पीछे उसका प्रज्ञा-अपराध है, न कि पूर्वजों एवं देवताओं क़ी कुदृष्टि।
वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है ,कि यदि व्यक्ति जाने-अनजाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किये गए किसी भी गलत कार्य का स्वयं भागीदार है तो उसका फल उसे निश्चित ही भोगना पड़ता है।
जिस कारण मेरे पूर्वज ,देवता ,गुरु ,ग्रह आदि क़ी दृष्टी विपरीत हो गयी होगी। हालाँकि आयुर्वेद इनके प्रभाव से इनकार नहीं करता, लेकिन आयुर्वेद में इस बात का उल्लेख है ,कि व्यक्ति स्वयं के अच्छे एवं बुरे कर्मों को भोगता है, न क़ी उसे उसके पूर्वज या देवता नाराज होकर परेशान करते हैं। आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक संहिता के निदान स्थान में इस बात का उल्लेख है, कि व्यक्ति अपनी प्रज्ञा ( बुद्धि) से विभ्रम होकर यदि गलतियां करता है ,तो उसकी इन गलतियों से ही रोग उत्पन्न होते हैं।अत: विद्वान् व्यक्ति से यह अपेक्षा क़ी जाती है ,कि वे देवताओं ,पितरों एवं ग्रहों को इसका दोषी न बनाएं। सुख एवं दु:ख का करता व्यक्ति स्वयं है,अत: व्यक्ति को हमेशा जनकल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। वत्र्तमान में उत्पन्न हो रहे असाध्य रोगों के पीछे भी व्यक्ति के पूर्व में जाने -अनजाने में किये गए कर्म हैं , न कि पूर्वजों क़ी कुदृष्टि। अत: हमें स्वयं के विवेक से निर्णय लेकर सत्कर्म करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक लगातार शराब का सेवन करने वाला शराबी, अगर कुछ समय बाद लीवर के निस्कार्य होने से मरणासन्न हो जाता है, तो इसके पीछे उसका प्रज्ञा-अपराध है, न कि पूर्वजों एवं देवताओं क़ी कुदृष्टि।
वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है ,कि यदि व्यक्ति जाने-अनजाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किये गए किसी भी गलत कार्य का स्वयं भागीदार है तो उसका फल उसे निश्चित ही भोगना पड़ता है।
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