हिमालयी क्षेत्र में पाये जानेवाले एक जहरीले पौधे के बारे में आज हम आपको कुछ संक्षिप्त मगर रोचक जानकारी देने जा रहे हैं इसे "हिमालयन ईयू" के नाम से भी जाना जाता है ..I इस वनस्पति का वैज्ञानिक नाम Taxus baccata है ,छोटे से मध्यम आकार के इसके सदाबहार वृक्ष लगभग दस से बीस मीटर लम्बे होते हैं ,इनके तने लगभग दो मीटर तक चौड़े होते हैं ,पत्ते गहरे हरे एक से चार सेन्टीमीटर तक लम्बे और दो से तीन मिलीमीटर चौड़े होते हैं I बीज कोन के रूप में अवस्थित होते हैं, जिनमें चार से सात मिलीमीटर के बीज पाये जाते हैं ,इनके चारों ओर मुलायम चमकीला लाल बेरीनुमा फल स्थित होता है I इस वनस्पति का सबसे रोचक पहलू है कि इसके सभी भाग जहरीले होते हैं और सुखाने पर तो जहर और भी बढ़ जाता है !हाँ, पक्षियों द्वारा इसका वितरण होने का प्रमुख कारण उनके पाचन तंत्र द्वारा बीजों के बाह्य आवरण को न तोड़ पाना है ! इस वनस्पति के वैज्ञानिक नाम का पहला हिस्सा "टेक्सस" इसके अन्दर पाए जानेवाले जहर को इंगित करता है ,जिसे टेक्सीन या टेक्सेन के नाम से जाना जाता है I एक छोटे बच्चे द्वारा इसकी चंद पत्तियों को चबाने मात्र से बच्चा गंभीर रूप से बीमार हो सकता हैI हाँ इसके बीज के बाहरी हिस्से जिसे एरिल के नाम से जाना जाता है निर्विष होते हैंI ये तो रही इस वनस्पति के परिचय की बात अब आपको हम इसके औषधीय लाभ के बारे में रोचक तथ्यों को उजागर करते हैं Iआपने एक कहावत सुनी होगी की जहर से जहर की दवा है और इसे आयुर्वेद ने भी "विषम विष औषधम " कहकर भी संबोधित किया है Iपश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में इसे "थुनेर" के नाम से जाना जाता है Iशायद यह एक ऐसा जिम्नोस्पर्म है जो इस क्षेत्र में औषधीय जडी बूटियों से आर्थिक समुन्नति प्राप्त करने का एक बड़ा जरिया बन सकता है Iआप सोच रहे होंगे की ऐसा कैसे हो सकता है, आइये इसे भी जानें ! 21 वीं सदी में यदि सबसे खतरनाक रोग की चर्चा करें तो आपके सामने एक रोग उपस्थित होता है, जिसे कैंसर के नाम से जाना जाता हैI कैंसर में अनियंत्रित कोशिकाओं के अकस्मात किसी ज्वालामुखी के विस्फोट की तरह बढ़ने को रोकने के चंद उपाय मौजूद हैं जिनमें कीमोथेरेपी भी एक प्रमुख उपाय है, लेकिन बड़ा और कड़वा सच यह है की ये दवाएं बहुत महंगी होती हैं Iथुनेर से प्राप्त होनेवाला "टेक्सोल" भी कुछ ऐसा ही है इसका प्रयोग एंटी-नियोप्लास्टिक या साइटोटोक्सिक दवा के रूप में किया जाता हैI इसका उपयोग ब्रेस्ट,ओवेरीयन ,लंग,ब्लेडर,प्रोस्टेट ,मेलोनोमा,एसोफेजीयल एवं अन्य गांठों की चिकित्सा में किया जाता हैI "टेक्सोल" का प्रयोग इंजेक्शन या इन्फ्यूजन के रूप में क्या जाता है ,यह एक ईर्रीटेन्ट (सूजन पैदा करने वाले ) रसायन के रूप में अपना प्रभाव दर्शाता है, यदि "टेक्सोल"के रूप में दी जा रही दवा गलती से रक्तनलिका के स्थान पर त्वचा में लग जाय तो सूजन आना तय हैI इस दवा को गोली के रूप में अभी तक नहीं बनाया जा सका है Iइस वनस्पति से प्राप्त "टेक्सोल" को दवा के रूप में प्रयोग कराये जाने का अपना बड़ा इतिहास रहा है ,1960 में अमेरिका के जोनाथन हार्ट ने नेशनल कैंसर संस्थान में कैंसर की दवाओं को खोजने के क्रम में जहरीली वनस्पतियों को संग्रह करना प्रारम्भ किया ,इस काम में उनका साथ कृषि विभाग के वैज्ञानिकों ने भी दिया ,1962 में यह तय हुआ की जानवरों में इस वनस्पति से प्राप्त एक्सट्रेक्ट कैंसररोधी प्रभाव दर्शाता है, इसके बाद नार्थ केरोलिना स्थित नेचुरल प्रोडक्ट्स लेबोरेटरी को इसके अन्दर पाए जानेवाले सक्रिय तत्व को प्राप्त करने की जिम्मेदारी दी गयी और उन्होंने इस सक्रिय तत्व को निकालने में सफलता प्राप्त की और इसे "टेक्सोल" नाम दिया ,क्यूंकि उन्होंने कैंसररोधी नेचुरल दवा में एक नया टेक्स्ट (अध्याय ) जोड़ दिया था ! इसके बाद अगले चरण में 1971 में इसकी संरचना को जानने की कठिन जिम्मेदारी भी इसी संस्थान ने तय की ,जिसे उस समय प्राप्त साधनों जैसे :एक्सरे क्रिस्टलोग्राफी आदि की मदद से प्राप्त किया गया अभी तक "टेक्सोल" के तत्व के रूप में सामने आ चुका था, लेकिन अन्य प्रजातियों के पौधों से प्राप्त तत्वों से यह अलग था यह साबित होना अभी बांकी था, इसलिए इसका पेटेंट हासिल करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया! 1977 में अलबर्ट आइन्स्टाइन कालेज आफ मेडिसीन के शोधकर्ताओं ने यह पता लगाया की "टेक्सोल" कोशिका विभाजन में भूमिका निभानेवाले प्रोटीन"ट्युब्युलिन" को प्रभावित करता है ,जो माइटोसिस (कोशिका विभाजन ) में प्रमुख भूमिका अदा करती है ,लेकिन यह अन्य कैंसररोधी दवाओं से कुछ अलग था ,इसके बाद इस रसायन के कई टेस्ट जोन हापकिंस इंस्टीटयूट बाल्टीमोर और अलबर्ट आइन्स्टाइन इंस्टीटयूट में जानवरों पर किये गए और प्रारम्भिक तौर पर इसे ओवेरीयन कैंसर में चमत्कारिक रूप से लाभकारी पाया गया ..अब इस दवा के मानवीय परीक्षण की तैयारी शुरू की गयी ,जिससे दवा महंगी होती चली गयी !इसके तत्काल बाद नेशनल कैंसर इंस्टीटयूट ने एक दवा कंपनी ब्रिस्टल मेयर्स के साथ करार पर हस्ताक्षर किये ,जिसने दवा को व्यापक तौर पर बनाने हेतु फंड आदि उपलब्ध कराना शामिल था, इसके बाद इस दवा की लागत कई गुना बढ़ गयी, बाद में ब्रिस्टल मेयर और इवेक्स फार्मास्युटिकल कम्पनी के बीच चार साल तक न्यायिक लड़ायी इसके जेनेरिक वर्जन को लेकर हुई, जिसे बाद में सेटल कर लिया गया, चूँकि "टेक्सोल" को पेटेंट नहीं किया गया था, इसलिए ब्रिस्टल मेयर ने 1991 से पांच साल तक इसे एक्स्क्लुसीवली मार्केट किया और कम्पनी के आफिसीयल ने इसके कंपटीटर जेनेरिक उत्पादों को नहीं रोकने का वादा किया !यह क्रम पांच साल तक चला ,1997 में ब्रिस्टलमेयर ने इसका पेटेंट हासिल कर लिया ,जिससे इसके जेनेरिक स्वरुप paclitaxel का अस्तित्व खतरे में पड गया अर्थात एक पौधे से प्राप्त दवा को बाजार में आने में लगभग तीस साल लग गए ! अब मेरा प्रश्न है : क्या हम किसी भी नयी दवा की खोज में इतनी लम्बी प्रक्रिया को अपनाते हैं ..? हमारे शोध संस्थानों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितनी ऐसी वनस्पतिक दवाओं को मानव हित में दुनिया के सामने लाया है? आपको यह जानकर ताजुब होगा की इसी "टेक्सोल" का जेनेरिक स्वरुपpaclitaxel कैंसर रोगीयों में कीमोथेरेपी के छ: चक्र को पूरा करने में होनेवाला खर्च $16,107 के करीब है !थुनेर के जैसी ऐसी ही कई वनस्पति आज भी हमारे आस-पास मौजूद है,लेकिन हम उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औषधि के रूप में साबित नहीं कर पाए हैं !
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